जानभी चौधुरी/संस्कार न्यूज
साहित्य का बहुत बड़ा हाथ है हमारे संस्कृति एवं सभ्यता में। आज हमारा देश अगर आगे है, स्वतंत्र है तो साहित्य भी इसका एक मात्र मुख्य कारण है। साहित्य भाषा की विविध और समृद्धि हमे हमारे पूर्वज से विरासत में मिली वरदान है। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो समुद्र सा गहरा है और सूरज की रोशनी सा हर जगह प्रकाश फैलाया हुआ है।
मगर आये दिन साहित्य समूह में राजनीती भी चल रही हैं, इस्तेमाल करके साहित्यकार को फिर फेंक दे रहे हैं। न ही मेहनत का कोई नाम, न ही पैसा, सिर्फ बदनाम किया जा रहा है साहित्यकार को, उसका सारा मेहनत और वक़्त लेके। ये कहाँ का न्याय हुआ?
*क्यों साहित्यकार हो रहे हैं, छल – कपट और द्वेष का शिकार?:
बहुत सारे खुलासे आये दिन हो रहे हैं, जहाँ मीठी-मीठी बातों के जाल में फंसाया जाता है एक साहित्यकार को फिर काम निकलवा लेने के बाद शकुनि के तरह षड़यंत्र करके उन्हें सरेआम बेइज़्ज़त करके निकाल फेंका जाता है। और फिर उन्हें चारो और बदनाम करने की कोशिश करते हैं। मगर वह ये भूल जाते हैं की ईश्वर भी है और उन्ही का साथ देता है जो सतमार्ग पर चलता हो। जिनके इरादे और नज़रिया में अगर इतनी खोट है की पहले ये मीठे बातों में उलझाते हैं जैसे आस्तीन का साँप, फिर उस साहित्यकार से अपने आधे से आधे काम करवाते हैं, दिन – रात मेहनत करवाके फिर इन्हे छोटा पद भी दिया जाता है और पीछे रखा जाता है और जो काम नहीं करते हैं, उन्हें सारा श्रेय देते हैं जब की परिश्रम कोई और किया होता है। ये सब दोगलापन है। जब निकालना होता है समूह से, ये कई न कोई बहाना ढूंढ़ते हैं एक साहित्यकार को निकालने की और बदनाम करने की, कई हथकंडे आजमाते हैं। और आपके व्यक्तित्व को खराप करते हैं। अपने पद का भी गलत इस्तेमाल करते हैं। साहित्य के नाम पर साहित्य समूह चलाने से क्या हो जायेगा जब उन समूह के काम इतने तुच्छ और शर्मनाक हो।
*बदले और द्वेष भावना से खेलते हैं ऐसे समूह विक्टिम(पीड़ित) कार्ड :
जो पक्ष लेते हैं उन साहित्यकार का, उनके एक-एक तिनके मेहनत की सरहाना करते हैं, उल्टा उन्हें सुनाया जाता है और बेइज़्ज़त किया जाता है, समूह से निकल जाने के लिए गोल मटोल शब्दों में कहा जाता है, ताकि “भैंस भी मर जाए और लाठी भी न टूटे”। आप सब बताएं क्या ये न्याय है? क्या वह साहित्यकार जो अपना दाना -पानी छोड़के उसी समूह के काम में उलझें होते हैं और बदले में उन्हें क्या मिलता है!
सिर्फ सरे आम बेइज़्ज़त, झूठी अफवाहें और उनके झूठे विश्वास का शिकार। ऐसे समूह सिर्फ साहित्य को ही नहीं हमारे संस्कृति को भी बदनाम कर रहे हैं। 12 घंटे भी नहीं होते ऐसे व्यक्ति को निकालने के बाद और ये ऐसा जताते हैं की इन्हे बहुत अफ़सोस होता है, निकालने का जब की सचाई कुछ और ही होती है। और आख़िरकार अपनी झूठी दुख और पीड़ा सुनाकर खेल लेते हैं ये विक्टिम(पीड़ित) कार्ड।
*क्यों अवैध काम कर रहे हैं साहित्य समूह? :
धोके का काम चल रहा होता है। ये सारे सदस्यों को फसाते हैं और इनका अब नया अजेंडा है की धर्म को साहित्य समूह पर जोड़ना जिसका इन्होने पहले से न कोई प्रतिबद्धता किया है, न ही ये सब समूह सरकार अधिकृत के अंदर आते हैं। इसके कारण ये विवाद में भी जा सकते हैं और उसमे सारे सदस्य को फसा रहे हैं। क्यों की हमारे गीता में कहा गया है की, “सनातन धर्म अपने आपको कभी पदोन्नति नहीं करता है”, बल्कि सही मार्गदर्शन देते हैं और प्रभु हमेशा अधर्म का घड़ा भरने पर धर्म की प्रतिष्ठा करते हैं। ऐसे समूह की जाँच होनी चाहिए। क्यों की ये सबके भावना और उनके विश्वास का खिलवाड़ कर रहे हैं। और कोई इन्हे आइना दिखाए तो ये उन्ही पर आरोप लगाते हैं, समूह से बदनाम करके निकाल फेंकने के बाद उसे बदनाम करने की साज़िश रचते हैं।
*न्याय दीजिये उन साहित्यकारों को! :
ये बहुत नाइंसाफी किया गया है उन साहित्यकारों के साथ और उन्हें न्याय मिलना चाहिए अपने किये गए मेहनत और दिए गए एक -एक सेकंड के लिए, उन्हें उनकी फीस मिलनी चाहिए जिसके वह हक़दार हैं। और ऐसे समूह के विरोध अभियोग किया जा सकता है। ये ऐसे काम करवाके, मेहनत करवाके उसे बिना पैसे, बिना कोई सम्मान के निकाल रहे हैं, भरे समूह में बेइज़्ज़ती कर रहे हैं, जिसका अधिकार किसी को नहीं है और चारो ओर अफ़सोस और पीड़ित होने का ढोंग रचा रहे हैं।
आखिर कब तक ये चलेगा, कब न्याय मिलेगा उन सभी निर्दोष साहित्यकारों को। ये गलत काम बंद करवाये समूह में, काफ़ी किशोर बच्चे इसमें एक आस के साथ जुड़ रहे हैं ताकि वह कुछ कर सकें, चंद पैसे और नाम कमा सके।
मगर इतनी दुख की बात है की ऐसे साहित्य समूह में उनको सिर्फ और सिर्फ इस्तेमाल कर रहे हैं और झूठी उम्मीद दे रहे हैं। सिर्फ धोकेबाज़ी, छल और फरेब ही चल रहा है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो ये साहित्य के साथ साहित्यकार का भी शोषण कर रहे हैं और इनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई बिठानी चाहिए, उच्च पंजीकृत प्रतिष्ठान को। और उन साहित्यकारों को अपने हिस्से और मेहनत का पैसा और सम्मान मिलना ही चाहिए।
~ मेरी आप सभी साहित्यकार से निवेदन है की, समूह में चल रहे गतिविधियों एवं विकास को देख, समझके, कुछ महीने या साल देखने के बाद ही उसमे भाग लेने के लिए सोचियेगा वरना आप सभी को भी ऐसे परिस्थिति का सामना करना पड़ेगा। और अगर हो सके जहाँ ऐसे धर्म को मिलाया जा रहा है, साहित्य का समूह कहके ये धर्म की पदोन्नति कर रहे हैं, वहाँ से दूर रहें।
जो मेहनत कर रहे हैं उन्हें सम्मान और उनके एक-एक सेकंड का पैसा मिलना चाहिए। और अगर आपको ये दोनों नहीं मिल रही है तो आपको सिर्फ लुटा जा रहा है। और जितना जल्दी हो सके तुरंत ऐसे समूह से बहार निकलने का व्यवस्था करें।
साहित्य, संस्कृति का पाठ पढ़ाके जो सिर्फ सबका फ़ायदा देखते हैं, इस्तेमाल करके उनको फेंक देते हैं, ये निहायती घटिआ सोच है। और ये बुद्धिमता का चिह्न नहीं है। समझदार बने, सावधान रहे और सतर्क रहे।