आज फादर्स डे पर..
डा. रमेश अग्रवाल
आज फादर्स डे है। हिन्दी में कहें तो पिता का दिन है। 365 दिन में से बस एक दिन। एक दिन उस पिता के लिये, जो 365 दिन के न जाने कितने साल अपने परिवार के लिये मकान बन कर, मकान के लिये छत बन कर और छत के लिये साया बन कर सर्दी, गर्मी और बरसात में दिन और रात जाग कर पहरा देता है। एक दिन ही सही बहरहाल मीठे- निर्मल जल के हजारों चश्मे अपने भीतर समेटे हुए, चट्टान सी इस शख्सियत पर चर्चा मात्र के लिये एक दिन यूं कम भी नहीं है।
पिता पर बात की शुरुआत के साथ ही एक सप्ताह पहले , समाचार पत्र में प्रकाशित वह समाचार याद आता है जिसके अनुसार उदयपुर जिले के गोगुंदा उपखंड क्षेत्र की सायरा पंचायत समिति के सुआवतों का गुड़ा गांव में एक पिता ने अपनी जीवित बेटी की शोक पत्रिका प्रकाशित कर गांव में बंटवा दी और उसका मृत्यु भोज भी कर दिया।पढ़ते ही प्रथम दृष्टया यह समाचार एक पिता की क्रूरता और अमानवीयता दिखाता सा लगता है मगर घटनाक्रम के मर्म तक पहुंचने के साथ ही इस बात का अंदाजा हो जाता है कि यह सब कुछ करते समय इस पिता के मन पर कितने पहाड़ों का बोझ रहा होगा। विस्तृत समाचार के अनुसार यह पिता जिस बेटी को जान से ज्यादा प्यार करता था उसने न सिर्फ मां बाप को बिना बताए अपने प्रेमी के साथ भाग कर शादी कर ली बल्कि पुलिस के सामने अपने पिता को पहचानने तक से इन्कार कर दिया।
जिस फूल को बागबां नें साया बन कर सींचा वही अगर किसी जहरीले कांटे की तरह कलेजे में चुभ जाये तो इससे होने वाले दर्द का अंदाजा कोई पिता ही लगा सकता है।पिता पर हाल ही एक खूबसूरत वीडियो, मोटिवेशनल स्पीकर सोनू शर्मा ने सोश्यल मीडिया पर डाला है। उनकी कही कुछ पंक्तियां ज्यों की त्यों उद्धृत कर रहा हूं। वे कहते हैं, पिता को अपनी संतान की जीवन भर की चिंताएं भी अपने सर पर बोझ नहीं लगतीं। खुद के लिये जूता भी नहीं खरीदता मगर संतान के लिये 5 हजार का जूता खरीद कर भी उसे अपार खुशी होती है।पिता नौकरी पर जाता है तो जवान होता है मगर लौटता है तो बूढ़ा होता है। इसी वीडियो में किसी कवि की कुछ पंक्तियां भी कुछ यूं हैं,
पिता रोटी है, कपड़ा है मकान है
पिता किसी नन्हे से परिन्दे का आसमान है
पिता है तो घर में प्रतिपल राग है
पिता से मां की चूड़ी बिंदी और सुहाग है
पिता है तो बच्चों के सारे सपने हैं
पिता है तो बाजार के सारे खिलौने अपने हैं।
मुझे याद है अब से कई साल पहले फिल्म अभिनेता संजय दत्त को अवैध हथियार प्रकरण में जब जेल हुई थी , उनके पिता स्वर्गीय सुनील दत्त ने तत्कालीन प्रधानमंत्री से लेकर शिवसेना के बड़े बड़े नेताओं के दर पर नंगे पांव फेरे लगाये थे। इस वक्त सुनील दत्त यह भूल गये थे कि एक अच्छे फिल्म स्टार ही नहीं आदर्श केन्द्रीय मंत्री के रूप में भी वे देश में नाम कमा चुके हैं। उस समय उन्हें यह भी याद नहीं था कि संजू की नशे की आदत और गलत संगत के कारण पिता पुत्र में न जाने कितनी बार किस हद तक कलह हुई थी। यही होता है पिता। एक उम्र के बाद संतान भले अपने पिता को पिता मानने से इन्कार कर दे मगर पिता अपनी संतान के बूढ़े हो जाने के बाद भी उसे अपनी गोदी वाला,गुड्डू, बब्बू अथवा पिंकी ही समझता रहता हैं।
पिता जहां अपनी संतान के लिये एक कल्पवृक्ष सा बन जाता है वहीं बदले में कई पिता अपनी संतान से जो पाते हैं उसका हिसाब हमें अखबारों में मिलता है।कुछ अरसा पहले तक देर रात दफ्तर से लौटते समय कई बार युवा लड़के लड़कियों को मोटर साइकिल पर फर्राटे भरते देख कर मन में खयाल आता था जिस बाप नें बैंक से कर्जा लेकर इस बेटे अथवा बेटी को पढ़ने अथवा कोचिंग के उद्देश्य से शहर भेजा होगा, क्या इस बेटे या बेटी ने उसे बताया होगा कि वह कर्ज के उसी पैसे से रात के अंधेरे में कितने अनजान खतरों से खेल रहा है? एक दृष्य और मुझे याद आता है, घटना रीजनल कालेजअजमेर चौराहे की है। शाम के लगभग साढे छ बजे सोलह वर्ष की एक किशोरी तेजी से स्वयं मोटरसाइकिल दौड़ाते हुए डिवाइडर से टकरा गई। बाइक पर पीछे परिपक्व उम्र का एक युवक था व साथ चलती बाइक्स पर कुछ और युवक। बालिका को जब सड़क से उठाया गया तो वह न सिर्फ नशे में धुत्त थी बल्कि अभद्र गालियां बक रही थीं। क्या ऐसी बच्चियों के माता पिता जब किसी थाने में अपनी बेटी की ओर से जूस में नशा मिला कर दुराचार का मुकद्दमा दर्ज करवाने जाते हैं, उन्हें बताया जाता है कि खुद उनकी लाडली इसके लिये कितनी जिम्मेदार है। दिलचस्प बात यह कि जब भी कोई बुजुर्ग , सयाना अथवा समाज का शुभचिंतक इन सबके लिये आगाह करता है, तमाम मीडिया, समाजसेवी और प्रगतिवादी हाथ धोकर उसे निचोड़ डालते हैं।
अजमेर शहर में हाल ही फिर एक ब्लैकमेल कांड की प्रतिध्वनि सुनाई दी थी। इसके पश्चात पुलिस की धरपकड़ भी शुरू हुई।शहर भर के हट रेस्टोरेन्ट्स, सुट्टा बार और लव प्वाइंट्स पर पुलिस की दबिश के बाद बीसियों ऐसे युवक युवतियां छिपते नजर आये जिनकी उम्र अभी सत्रह वर्ष तक भी नहीं पहुंची थी। हैरत की बात यह थी कि छोटी छोटी बच्चियां, पुलिस को खलनायक मान कर इससे छिप रही थीं और शक्ल से ही शक्तिकपूर नजर आ रहे युवकों को अपना नायक। सबसे ज्यादा
आश्चर्य की बात यह थी इनमैं से कुछ किशोर किशोरियों की पुलिस ने जब फोन पर अपने माता पिता से बात कराई तो बजाय अपराध बोध महसूस करने के वे अपने अभिभावकों से झगड़ते हुए नजर आ रहे थे। शायद माता पिता के हस्तक्षेप को वे अपने निजी जिन्दगी का अतिक्रमण मान रहे थे। उन्हें नहीं मालूम कि संतान जब घर से बाहर होती हैं माता पिता की सांस दरवाजे पर ही अटकी रहती है।
बहरहाल जो भी है आज फादर्स डे है उन सभी बच्चे बच्चियों को बधाई जो राम का अनुसरण कर अपने माता और पिता को ही अपना भगवान मानते हैं। किन्तु जो बच्चे सिर्फ हैप्पी फादर्स डे लिखे हुए ग्रीटिंग कार्ड को ही आज के दिन का दस्तूर मानते हैं उनसे गुजारिश है कि वे एक बार उस दिन की कल्पना करें जब वे खुद माता और पिता बनेंगे और अपनी संतान से अपने लिये कुछ और नहीं बस विश्वास की कामना करेंगे। ध्यान रखें इस संसार में हम जिस फल का बीज बोते हैं वही हमें मिलता है। अगर हम भविष्य में अपनी संतान का विश्वास चाहते हैं तो आज फादर्स डे पर अपने पिता को कुछ नहीं बल्कि दें सिर्फ एक भरोसे का तोहफा। और अब अंत में सभी से अनचाहे उपदेश के लिये क्षमा याचना और पुन: एक बार हैप्पी फादर्स डे।